आस्था और विश्वास जन्म लेते हैं एक सही भावना के साथ परन्तु यही भाव प्रायः अंधविश्वास में तब्दील हो जाता है। सभ्यता के विकास के समय से मानव, संसाधनों को जन्म देने वाली प्रकृति का आभार प्रकट करने लगा। उसने खाने, रहने, पहनने आदि तमाम चीजों का उपयोग प्रकृति में उपस्थित वस्तुओं से करता और इन सुविधाओं के लिए प्रकृति को सम्मान देना शुरू किया। पुराने समय से ही वह रोशनी और प्रकाश उर्जा के स्रोत सूर्य को, जल आदि के लिए नदियों और जलाशयों को, और फ़सल आदि के लिए भूमि को एक प्रमुख दर्जा देने लगा।
यहां से हुई आस्था की शुरुआत, वह प्रकृति से मिल रहे हर एक छोटी बड़ी चीज़ जिससे उसका भरण पोषण होता है, उसे सम्मान देना शुरू किया। यह निर्भरता बढ़ती गई। जब भी वह किसी अभाव में होता वह प्रार्थना करता कि वह शीघ्र ही उस संकट से निपट सके। आस्था का जन्म सम्मान भाव, आभार और कृतघ्नता से होता है जो कि प्रायः उस वस्तु या व्यक्ति के प्रति होती है जो इन्सान खुद से बड़ा या महत्वपूर्ण समझता है।
सभ्यताओं के विकास के साथ-साथ आस्था का स्वरूप बदलता गया। अलग अलग देवी-देवताओं का वर्णन, अलग अलग धर्मों का जन्म, ये सब बातें इस बात का प्रमाण हैं। विस्वास, आस्था की छोटी इकाई है। समय के साथ मानव तर्क वितर्क कर आस्था के अलग अलग स्वरूपों को समझने की कोशिश करता आया है। आस्था का विशेष गुण यह है कि इसमें कोई बाध्य नहीं किया जा सकता, आस्था स्वैच्छिक भाव है। मनुष्य की आस्था सजीव व निर्जीव वस्तुओं से परे है। आस्था किसी के लिए न दिखने वाला ईश्वर हो सकता है या मनुष्य का ज्ञान प्राप्त करने के प्रति ललक हो सकती है।
यही आस्था अगर मनुष्य को बाध्य कर दे और वह यह समझने में सक्षम न रहे कि वह स्वयं या मानवता के लिए ग़लत कर रहा है तो अक्सर आस्था अंधविश्वास को जन्म देती है। आस्था और अंधविश्वास के बीच में बहुत ही बारीक लाइन है। अंधविश्वास बढ़ावा देती है अनेकों समाजिक व धार्मिक कुरीतियों को जो मानवता के लिए प्रायः हानिकारक सिद्ध हुई है और होती हैं। अंधविश्वास में स्वतन्त्रता नहीं होती, तर्क वितर्क का स्थान नहीं होता। और इसे बढ़ावा देने के लिए प्रायः आपकी भावनाओं और धर्म का इस्तेमाल किया जाता है।
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